Dhadak 2 Review: सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी की फिल्म जातिवाद पर भारी, लेकिन इमोशन में ढीली

नई दिल्लीः साल 2018 में रिलीज हुई ‘धड़क’ ने सैराट की रीमेक के तौर पर बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाई थी। अब 7 साल बाद करण जौहर लेकर आए हैं इस सीरीज़ का दूसरा पार्ट – ‘Dhadak 2’। इस बार फिल्म में लीड रोल में हैं सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी। कहानी सामाजिक मुद्दों से जुड़ी है लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या यह फिल्म भी उतना ही असर डालती है? आइए इस रिव्यू में जानते हैं।

कहानी क्या है?

धड़क 2 की कहानी भोपाल में सेट की गई है। मुख्य किरदार नीलेश (सिद्धांत चतुर्वेदी) एक निम्न जाति का युवक है, जो वकील बनने का सपना देखता है। उसे आरक्षण के आधार पर लॉ कॉलेज में एडमिशन मिलता है। नीलेश की अंग्रेज़ी कमजोर है, इसी वजह से उसकी मदद करती है क्लासमेट विधि (तृप्ति डिमरी)। दोनों के बीच प्यार पनपता है।

विधि जात-पात में यकीन नहीं रखती, लेकिन उसके परिवार और समाज की सोच अब भी पुरानी है। विधि का चचेरा भाई रोनी (साद बिलग्रामी) इस रिश्ते के खिलाफ है और नीलेश को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है। कहानी तब एक मोड़ लेती है जब रोनी नीलेश की हत्या की सुपारी देता है। अब यह देखना दिलचस्प होता है कि नीलेश क्या रास्ता चुनेगा – चुप रहना या विरोध करना।

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पहले हाफ में कमजोर पकड़

फिल्म की शुरुआत एक गंभीर और विचारणीय कथन से होती है – “जब अन्याय कानून बन जाए, तो प्रतिरोध कर्तव्य बन जाता है।” कहानी की रूपरेखा राहुल बडवेलकर और शाजिया इकबाल ने तैयार की है और निर्देशन भी शाजिया इकबाल ने ही किया है। लेकिन फिल्म की रफ्तार शुरुआत से ही धीमी है। जातिवाद और प्रेम कहानी को सेटअप करने में इतना समय लग जाता है कि दर्शक जुड़ नहीं पाते।

नीलेश और विधि की लव स्टोरी में वो गहराई नहीं है जो दर्शकों को बांध सके। फिल्म का पहला हाफ खिंचा हुआ महसूस होता है और कहीं ना कहीं दर्शक कहानी से disconnected हो जाता है।

कमजोरियों की भरमार

फिल्म का सेटअप लॉ कॉलेज में है, लेकिन न तो वहां कानून की गंभीर बहस होती है और न ही विद्यार्थियों के बीच कोई तार्किक संवाद। ऐसे माहौल में जहां कानून की पढ़ाई हो रही है, वहां तर्क और विचारों की गैरमौजूदगी कहानी को कमजोर बनाती है।

विलेन के रूप में दिखाए गए शंकर (सौरभ सचदेव) के किरदार को भी ढंग से डेवलप नहीं किया गया है। यह साफ नहीं होता कि वो निम्न जाति के लोगों के खिलाफ इतना गुस्सा क्यों रखता है।

एक छात्र नेता शेखर (प्रियंक तिवारी) की आत्महत्या का प्रसंग फिल्म में शामिल किया गया है, लेकिन ये भाग न तो भावनात्मक रूप से प्रभावित करता है और न ही तर्कसंगत लगता है। ऐसे समय में जब सोशल मीडिया हर आवाज़ को वायरल कर सकता है, फिल्म में जातिवाद और अन्याय के खिलाफ कोई ऑनलाइन विरोध नहीं दिखाना अवास्तविक लगता है।

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अंत में सुधार की कोशिश, लेकिन असरदार नहीं

फिल्म का क्लाइमैक्स जबर्दस्ती सुखद बनाने की कोशिश करता है लेकिन वो नैचुरल नहीं लगता। हालांकि कुछ संवाद जरूर हैं जो ध्यान खींचते हैं, जैसे – “मुझे पॉलिटिक्स में नहीं आना”, जिस पर प्रिंसिपल जवाब देता है – “ये तो केजरीवाल ने भी कहा था।”

एडिटर ओमकार उत्तम सतपाल फिल्म को करीब 20 मिनट छोटा करके इसे और प्रभावी बना सकते थे। संगीत की बात करें तो रोचक कोहली, तनिष्क बागची और जावेद मोहसिन का म्यूजिक औसत है। कोई गाना या बैकग्राउंड स्कोर ऐसा नहीं है जो कहानी को और दम दे सके।

परफॉर्मेंस कितना दमदार रहा?

सिद्धांत चतुर्वेदी ने नीलेश के किरदार को पूरी ईमानदारी से निभाया है। उन्होंने उस किरदार की मासूमियत और अंदर का दर्द बखूबी दिखाया है। तृप्ति डिमरी की परफॉर्मेंस अच्छी है लेकिन उनका किरदार काफी सीमित है।

प्रिंसिपल की भूमिका में जाकिर हुसैन और नीलेश के पिता के किरदार में विपिन शर्मा भी छोटे रोल में असर छोड़ते हैं। प्रियंक तिवारी और साद बिलग्रामी अपने-अपने किरदारों में जमे हैं, लेकिन कई पात्रों को और बेहतर तरीके से लिखा और पेश किया जा सकता था।

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